अब और नहीं : ग़ज़ल
बंज़र ज़मीं पे अब सुकून और नहीं थके थके से पाँव, नया दौर नहीं धूप में क्या छाँव की करूँ ख़्वाहिश हर शय है रेत-रेत, कहीं ठौर नहीं …
बंज़र ज़मीं पे अब सुकून और नहीं थके थके से पाँव, नया दौर नहीं धूप में क्या छाँव की करूँ ख़्वाहिश हर शय है रेत-रेत, कहीं ठौर नहीं …