समय की भीत पर अंकित सुनहरी रीत थी हिंदी
रहीम और तुलसी ने गाया, मधुर वो गीत थी हिंदी
कई नदियों के संगम से महानद जो हुई उद्भुत
वो तत्सम, तद्भव की देशज-विदेशज प्रीत थी हिंदी
पवन-मंदार के झोंकों सी बहना चाहे झर-झर, पर
शिशिर है आज, ठिठुरी कांपती है आज भी हिंदी!
चली जब शुष्क पछुआई, पुरानी रीति धुंधलाई
बची है आज केवल अस्पष्ट एक लीक सी हिंदी
मृगी जैसे हो अन्वेषी, मरीचिका में ज्यों भटकी
मरूभूमि में अपना आश्रय अब ढूंढती हिंदी
हमारी वृद्ध माँ के झुक गए हैं जीर्ण कन्धे अब
युवा, सशक्त कंधे मांगती है आज भी हिंदी!
फलाक्षादित वृक्षों सी है नतमुख चलती ये हिंदी
अवज्ञा करते हैं तभी तो हम इस आर्यभाषा की
किन्तु भाषा वो आयातित जिसे मिली है प्रसिद्धी
विवशता में करें हम अंधभक्ति आंग्लभाषा की
न ये रोमन, न जॉर्जीयन्, लिपि है देवनागरी ये
तभी देवों की नगरी आंकती है आज भी हिंदी!
कोई स्त्री ज्यों उपेक्षिता, खोजती अपनी अस्मिता
स्वयं अपने घर-आँगन में हो गई हिंदी परित्यक्ता
विवश है आज, मानो ठौर ना, कोई ना ठिकाना
निधी अमूल्य जिसका मूल्य हमने ही न पहचाना
पयोधि सी मिली मंथन से, निकली क्षीरसागर से
जिजीविषा हमारी भांपती है आज भी हिंदी!
उदित होगा कभी हिंदी का वह प्रखर सूर्य, लाल
दरकता, स्पष्ट वो आकाश है हिंदी का प्रातःकाल
ये कोहरे- धुंध भेदकर रश्मि फैलेगी तीव्र-धार
बंद किवाड़ के उस पार खुला आशा का वही द्वार
सिंध की घाटियाँ वीरान, फिर होंगी गुंजायमान
बुलन्दी हिमशिखर की नापती है आज भी हिंदी!
एक दिन फिर जी उठेगी वो मलयानिल सी सुगंधी
स्वत: अंतस् में बस जाएगी जब हिन्दी, यही हिंदी
थपेड़े लाख पछुआ के, ये अग्निशिखा न डिगेगी
जलेगी अनवरत समिधा की धीमी लौ सी ये हिंदी
हों साक्षी उस क्षण के हम फैले जो हिंदी का परचम
शक्ति का लास्य-नृत्य नाचती है आज भी हिंदी!
शब्दावली: आज भी हिंदी.
- भीत: बालू, रेत
- उद्भुत: उत्पन्न, प्रकट हुआ
- तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशज: उत्पत्ति के आधार पर हिंदी शब्दकोश के शब्दों के प्रकार
- पवन-मंदार: हवा, जो बिहार में स्थित मदार पर्वत से आती है! पौराणिक कथाओं में कहा गया है कि समुद्र मंथन मंदार पर्वत से किया गया था!
- शिशिर: शीत ऋतु, जाड़ा !
- पछुआई: पश्चिमी हवा (यहाँ हमारी भाषा पर पश्चिमी प्रभाव को दर्शाती है)
- अन्वेषी: खोजी
- जीर्ण: पुराना, कमज़ोर
- फलाक्षादित वृक्ष: फलों से लदे पेड़, जो झुक जाते हैं
- नतमुख: सर झुका कर चलना
- अवज्ञा: अनादर, उपेक्षा करना
- आर्यभाषा: हिंदी
- आयातित: दूसरे देश से आई वस्तु
- आंग्लभाषा: अंग्रेज़ी
- रोमन-जॉर्जीयन् -देवनागरी: विभिन्न लिपियाँ
- उपेक्षिता: ठुकराई हुई
- अस्मिता: आत्मसम्मान
- परित्यक्ता: ठुकराई हुई
- पयोधि: अमृत
- क्षीरसागर: पुराणों में जिस समुद्र का मंथन अमृत के लिए हुआ था
- जिजीविषा: जीने की इच्छा
- गुंजायमान: गूंजना
- मलयानिल: मलय पर्वत की सुगन्धित हवा (मलय पर्वत श्रेणी में चन्दन के वृक्ष पाए जाते हैं)
- अंतस्: अंतर्मन
- अनवरत: लगातार
- समिधा: हवन में जलने वाली लकड़ी
- शक्ति का लास्य-नृत्य: शिव की पत्नी, सती (शक्ति) द्वारा किया गया कोमल लास्य नृत्य जो वह तांडव करते शिव के क्रोध को शांत करने के लिए किया करती थीं !
मैंने ये कविता विशेषकर हिंदी दिवस समारोह के लिए लिखी है जो विगत वर्षों में अंग्रेज़ी के सामने हिंदी की अवहेलना को दर्शाती है! साथ ही हिंदी भाषा के स्वर्णिम इतिहास और वर्तमान में इसके पुनरुत्थान की बानगी भी प्रस्तुत करती है.
हिंदी.
कितना सुन्दर शब्द है न..! लास्य और माधुर्य से परिपूर्ण..इ की बड़ी-छोटी मात्राओं से सुगठित.. बहुत हद तक “स्त्री” की तरह सुमधुर, पर एक ज्वलंत प्रश्न जैसा शब्द. स्त्री…जब तक सुन्दर और उपयोगी है सबको पसंद आती है, पर जहाँ सपने देखने का दुःसाहस कर ले, झट बुरी बन जाती है. और कहीं गलती से दिमाग भी हुआ उसके पास फिर तो पूछो ही मत . ऐसी दिमाग वाली स्त्री के लिए नए-नए घृणात्मक विशेषण ना रचे जाएँ तो आश्चर्य होगा. पूजनीय कहने वाले मुँह और घृणित बना देने वाले हाथ एक ही सिस्टम के हैं. देवी कहने और चरित्र-हनन करने में रत्ती भर का अंतर और क्षण भर की देर.. बस !
खैर ! आज स्त्री-विमर्श नहीं लिख रही मैं. लिखना छोड़ दिया है आजकल. लिखने-पढ़ने से क्या फ़ायदा अगर वह विमर्श आपके अंदर परवर्तन नहीं ला सके? लिखते सभी हैं, मानता कोई नहीं. आज भी लगभग हर घर में कहीं न कहीं किसी न किसी की स्त्री की आत्मा घुटती है और पुरुषवाद अट्टहास कर रहा होता है. स्त्री-विमर्श की बातें अब और नहीं ! मेरा आज का विषय है “हिंदी-विमर्श”.
हिंदी-विमर्श ! जी हैं ! बिलकुल वैसे ही जैसे साल में एक दिन महिला दिवस मनाकर और नौ दिनों तक शक्ति-पूजा कर बाक़ी के 355 दिन ज़बान और हाथ स्त्रियों पर अलग-अलग विमर्श करने लगते हैं, हिंदी के साथ भी वही होता है. राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय हिंदी दिवस मनाकर हम वापस अंग्रेज़ी के शरण में चले जाते हैं. बिलकुल जाएँ, ज़रूरी है अंग्रेज़ी भी. पर हिंदी को दूध में पड़ी मक्खी के तरह फेंककर अंग्रेज़ी के साथ चोले-दामन का साथ निभाते हुए भूल जाते हैं उस भाषा को रसोई में पड़ी उस स्त्री की तरह जो काम तो आती है, पर अपनी महत्ता नहीं जताती.
हिंदी कल भी थी..आज भी है..और शायद आगे भी रहे…लिखी-पढ़ी जाए, बोली जाए…इतनी, कि विमर्श की आवश्यकता नहीं रहे. यह कविता हिंदी दिवस पर लिखी थी, आज विमर्श बन चुकी है. .
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