मन स्याह अमावस मेरा
फीके सभी तारे,
उजाले ले गयी हो तुम
पीछे हैं अँधेरे |
दिए जलाके आँखों के
बाती सी मैं जली,
याद आ रही न जाने क्यों
पिछली वो दिवाली |
दिए तो बुझ गए मगर
उठता है ये धुआं,
आँखों में चुभ रहा बहुत,
काजल रचूँ कहाँ ?
लुका-छिपी बहुत हुई
अंधेरों से कह दो,
रौशनी की आस थोड़ी
दिल में रहने दो |
ऐ रात की स्याही, सुनो
आँखों में ना आना !
सितारों से कह दो, कई
अरमां जले यहां |
दीयों के रंग चटक बहुत
पर रौशनी नहीं,
बाती सजाये बिन ही तुम
कहाँ चली गयी ?
आकाश में सितारों बीच
तुम कहीं तो हो,
ध्रुवतारे के करीब जलती
ज्यों दिये की लौ |
This Diwali burns like hoarse firecrackers inside and paints the outer world in murk….these Diyas were painted by my sister, Vineeta Mishra which exude darkness without her. What more can I do than transforming this murk into words!?
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