बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे..
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे..
प्रश्न लिए अस्तित्व का जो
छोड़ आए घर-चौबारे,
पहुँचा वो आंदोलन अब
मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे |
जिन कन्धों पर हल थे कल
अब जबरन बैठी लाठी,
हमने कभी ना देखी ऐसी
कृषकों की कद-काठी |
संशय में है देश पड़ा,
अब पर्दे में है सब कुछ,
सच के सौ-सौ चेहरे देखे
फिरभी करते खुस-फुस |
अपनी-आपनी ज़िद पे हैं
मनमर्जी के हैं किस्से,
भूखों के हक़ की रोटी
जाती समर्थ के हिस्से |
युद्ध छिड़ा है बेमतलब
वर्चस्व चढ़ा है दांव,
खाली दामन लेकर कैसे
लौटेंगे अब गाँव ?
हुआ पुराना ‘जन गण मन’
नूतन किस्से रच डालो,
‘जन’ तुम रखो और ‘गण’ वो
‘मन’ के हिस्से कर डालो |
बंट गये रंग तिरंगे के सब
हरा, शुभ्र और केसरी,
गति हुई अवरुद्ध चक्र की
लड़े कृषक और प्रहरी |
कुछ तटस्थ कुछ ढ़ोंगी
मिलकर चला रहे हैं देश,
सिंहासन पर विराजते,
भेड़िये बदलकर वेश |
“बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे”
कह गये शायर ‘फैज़’,
राजनीति भाये ना हमें
फिर भी आता है तैश |
“बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे..” ..फैज़ अहमद फैज़’ ने कहा था…|पर, बिना डरे सच कहना इतना आसान है क्या ? आज का सच कहना तो और भी मुश्किल ! सच काला है या सफ़ेद, ये बताना तो सबसे अधिक मुश्किल ! शायद काले-सफ़ेद के बीच Grey बनकर भटक रहा है सच |
हमारी भारतीय संस्कृति ने हमें काले और सफ़ेद के बीच बहुत से इंद्रधनुषी रंग दिए हैं | ग्रे का कोई अस्तित्व नहीं | तभी तो हिंदी रंग-पटल पर ग्रे का कोई नाम नहीं | धूसर…धूल का रंग… कहाँ इसे परिभाषित कर पाते हैं ? एक आकलन मात्र है | फिर, काले और सफ़ेद की तरह यह भी बस एक शेड, एक छाया ही तो है, रंग नहीं… पश्चिमी सभ्यता की देन है Grey, बस |
काले-सफ़ेद के बीच पेंडुलम की तरह डोल रहा है आज का सच…सही कौन है ? किसान या सरकार ? कभी इधर तो कभी उधर…डोल-डोल कर, थक कर… अब ये ग्रे सच हाशिये की ओर खिसक चला है |
वर्षों पहले फैज़ को पढ़ा था…. “बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे…” इस नज़्म के कई संस्करण पढ़े, सुने…तोड़ मरोड़ कर पेश की गयी ना जाने कितनी बार… वर्षों पहले पत्रकारिता की पढ़ाई के दौरान सुना और बचपन में सीखा था…. “चाहे जो हो जाये, सच कभी भी हाशिये पर ना जाने पाए..”
कवितायें तब भी लिखती थी, अब भी लिखती हूँ | सच हाशिये पर ना जाए, कोशिश जारी है | किसान आंदोलन के रंग रोज़ बदल रहे हैं….रंग नहीं शेड्स… काले-सफ़ेद के बीच ग्रे कभी गहरा तो कभी हल्का… हाशिये पर लोटता हुआ…|
पर, मेरी इस हिंदी कविता का रंग बड़ा तीखा है | MDH की मिर्च सा तीखा लाल | हालांकि, मैं तीखा नहीं खाती | स्वाद नहीं, बस रंग पहचानती हूँ | व्यंग्य का तीखा रंग | किसान आंदोलन पर पहले भी लिख चुकी हूँ | इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ें ज़रूर | क्योंकि, फैज़’ ने कहा था…”बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे…”
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