Din kaagaz, raatein syahi: A Hindi poem which portrays the dreams of a night rambler who is euphoric towards nature and nostalgic about good old memories…. memories, sweet and sour….a telltale wisp of concealed emotions … Wo din bhi kya din the….
वो दिन भी क्या दिन थे जब
मेरे शहर में हवा भी महँगी थी,
हर ओर समंदर था खारा
मैं बूँद-बूँद को तरसी थी !
दिन घुटनों के बल चलते थे
रातें आँखों में कटती थीं,
मैं फ़लक के तारे गिन-गिन कर
अश-आर तुम्हारे पढ़ती थी !
हर ओर अँधेरा छाया था
बन शमा मैं खुद ही जलती थी,
हर रात, सुबह के आने तक
मेरी आँखों में जी लेती थी !
था जून महीना वो फिर भी
कोयल हर रोज़ ही कूकी थी,
क्या उसको था मालूम कि मैं
मौसम की तरह ही रूखी थी?
बादल भी गरज-गरज मुझसे
यूं आँख मिचौली करते थे,
मेरी आँखों से बूँदें लेकर
फिर क़र्ज़ चुकाया करते थे !
मेरे कानों में वो पुरवाई
एक सरग़ोशी सी करती थी,
जो सुर वह छेड़ा करती थी
मैं उनसे मन भर लेती थी !
टहनी पर बैठा चाँद तुम्हे
जाने मुझसा क्यों लगता था,
मेरी आँखों के काजल से वो
ग़ज़लों सा कुछ तो लिखता था.
वो दिन भी क्या दिन थे जब
मैं मर कर फिर जी उठती थी,
तुम आती थी ऐ शाम औ’ मैं
सुबह को चुनौती देती थी !
अब दिन कागज़, रातें स्याही
घंटे चौबीस, पर सांसें कम,
पन्नों पर बस बिखराती हूँ
थोड़ी खुशियां, थोड़े से ग़म !
वक़्त है कम और सुस्त क़दम
पर दूर बहुत साक़ी है अभी,
सुस्ता लूँ ज़रा, मुस्का लूँ ज़रा
दम भर जीना बाकी है अभी !
Glossary:
फ़लक: Sky
अश-आर : Couplets of a Ghazal or Nazm
सरग़ोशी: Whisper, Murmer
साक़ी : Bartender. But here, God
Pic Courtesy: Whoa..in
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