लता को क्या गाऊँ, क्या लिखूँ ?
माँ नहीं थीं वो. न दीदी, ना ताई…ना कोई देवी ! बस लता. कैसे बाँध दूँ बहती स्वरधारा को इन छोटे-छोटे रिश्तों में ?
हम दोनो की उम्र लगभग बराबर थी. मैं कोई दसेक साल की रही हूँगी जब उन्हें पहली बार ठीक से पहचाना. वो मेरी हमउम्र थीं तब. बड़े चाव से उनकी नक़ल करती थी मैं. मेरी भोर की भेरी से लेकर सांझ की दुदुम्भी तक, सबकुछ लतामय था. उनकी स्वरलहरियों में सराबोर मैं डूबती-उतराती बड़ी होती गई, पर वो बड़ी नहीं हुई कभी…वही कुञ्ज की कोयल कूकती रही, सुरों की छिली किशमिश माधुर्य को चुनौती देती, समय की धारा के विपरीत सतत शर्करा होती रही…उम्र के सख़्त दरख़्तों से कोंपल सी फूटती रही…पत्थर पर दूब सी…दूब पर ओस सी…
तरु-वल्लरी… बरगद पर लिपटी हुई लता…बरगद भी वो और लता भी वही. ….पहाड़ सा व्यक्तित्व और निर्झर सा स्वर…सीपी में बंद अनघा सी…सीपी भी वही, अनघा भी वही… मानो विधाता ने हीरे को 18 कैरेट सोने में नहीं, सेमल की रूई में जड़ दिया हो. 1982 में जब उन्हें एक कॉन्सर्ट में लाइव गाते सुना, मैं रोने लगी थी. सबने कहा, ‘बौरा गई है’. पर वो एक अलौकिक अनुभूति थी. स्टेज पर उन्हें जैसे देखा तक नहीं…ऑंखें बंद और कान सुन्न… आनंद का अतिरेक था… अत्यधिक खुशी जज़्ब करना मेरे छोटे से दिमाग की परिधि से बाहर था.
वो छोटी सी बच्ची गा रही थी जो तिरोहित थी, और जो स्टेज पर थी वो गरिमामयी महिला, लाल-पाढ़ की शुभ्र कांजीवरम साड़ी में…जिनकी एक भृकुटी पर सारे म्युज़ीशियन्स थर्रा उठे थे. वो लता माँ…या दीदी या ताई या देवी की संकीर्ण परिभाषाओं से परे है… लता बस लता हैं. ख़ुद में सम्पूर्ण! तरु-वल्लरी…!
एक महीने तक गुनगुनाना भूल गई थी मैं… वो वक़्त था जब मैं ठीक-ठाक गा लेती थी. अपने छोटे शहर की छोटी सी चाइल्ड प्रोडिजी. मेरे स्कूल में मुझे “सेंट माइकेल्स की लता” बुलाते थे. मैं इतराती..”चलो लता ना सही, कम से कम उनके नाम का ‘ता’ मेरे नाम में भी है और सरनेम ‘म’ से शुरू. इतना काफ़ी है!”
भर जीवन लता की रौ में बहती रही…सतत. पर लता वो महानद है जिसकी एक बूँद भी छूना कल्पनातीत है. वो जितनी वृहद् हैं उतनी ही सूक्ष्म भी … गोमुख, जिससे अनगिन जलधाराएँ बहती हैं…सागर में जा मिलती हैं पर प्रवाह नहीं रुकता.. नित् नई धार प्रस्फुटित होती…बहती रहती है…अनंत काल तक …अनादि और अनंत स्वरधार…
“अजीब दास्तां है ये…कहाँ शुरू कहाँ ख़तम….”
समयातीत…टाइमलेस… लता मरती नहीं…वह एक अनंत उत्सव हैं…जीवन से ठसाठस भरी… मृत्यु की पदचाप से परे ! महाप्रयाण का दिन भी कौन सा चुना? देवी सरस्वती के विसर्जन का दिन ! शोक से परे, उनकी मृत्यु भी एक उत्सव बन गई है.
स्वर नहीं सजते अब मेरे …. क्या गाऊँ? मेरी क्या औक़ात कि मैं गाऊँ लता को!
“सूनी मेरी वीणा संगीत बिना
सपनों की माला मुरझाए ”
बस मेरी एक छोटी सी कोशिश है…इस हक़ से कि मैं उन करोड़ो में से हूँ जो लता को साधने चलीं थीं, पर ख़ुद सध गईं.
सुनिए, मेरे प्रस्तुति…
गीत: “तेरा मेरा प्यार अमर”
फिल्म: असली नक़ली
साल: 1962
वीडियो सौजन्य: Anindhya Mishra
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